Mahaprabhu ji

Shri Vallabhacharya Mahaprabhu ji (श्री वल्लभाचार्य महाप्रभुजी)

अखण्ड भूमण्डलाचार्य जगद्‌गुरू श्रीमद्‌ वल्लभाचार्य महाप्रभुजी

सौन्दर्यंनिजहृद्‌गतंप्रकटितंस्त्रीगूढ़भावात्मकं।

पुंरूपंचपुनस्तदन्तरगतंप्रवीविद्गात्‌ स्वप्रिये॥

संच्च्लिष्टावुभयोर्बभौरसमयः कृष्णोहि यत्साक्षिकम्‌।

रूपंतत्त्रितयात्मकंपरमभिध्येयंसदावल्लभम्‌॥

अखण्ड भूमण्डलाचार्य चक्रचूडामणि शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद के प्रवर्तक, भक्तिमार्गब्ज-मार्तण्ड जगद्‌गुरू श्रीमद्‌ वल्लभाचार्य महाप्रभुजी का प्राकट्‌य वि.सं. १५३५ वैशाख कृष्णपक्ष एकादशी के शुभ दिन वर्तमान रायपुर के समीप चम्पारण्य नामक एक सघन वन क्षेत्र में हुआ।

श्री महाप्रभुजी के पितृचरण श्री लक्ष्मणभट्‌टजी एवं मातृ चरण श्री इल्लमागारूजी थे। श्री लक्ष्मणभट्‌टजी के पूर्वज श्री यज्ञनारायण भट्‌टजी को स्वयं प्रभु श्रीकृष्ण ने वरदान दिया था कि जब आपके कुल में सौ सोमयज्ञ पूर्ण होंगे तब स्वयं श्रीप्रभु आपके कुल में अवतार लेगें। उसी वरदान के फलरूप श्री वल्लभाचार्य महाप्रभुजी सौ सोमयज्ञ पूर्ण होने के पश्चात श्री लक्ष्मणभट्‌टजी के गृह में प्रकट हुए।

जन्म के समय बालक को निश्चेतन जान श्री लक्ष्मणभट्‌टजी एवं माता श्री इल्लमागारू जी ने उन्हें एक वृक्ष के कोटर में पत्तों से ढँक कर पधरा दिया और अति दुःखीमन से आगे की और प्रस्थान किया, जहाँ रात्रि में पिता श्री लक्ष्मणभट्‌टजी को स्वप्न में आज्ञा हुई कि जिस बालक को आप वन में मृत समझ कर छोड आए हैं, वह साक्षात पूर्ण पुरूषोतम है, तब श्री लक्ष्मणभट्‌टजी और श्री इल्लमागारूजी पुनः जन्म स्थान पर पहुँचे और वहाँ पहूँच कर देखते हैं कि वही सुन्दर बालक एक अग्नि के गोल घेरे में बाल सुलभ क्रीडा कर रहा है। तब पूज्य मातृचरण स्वयं वहाँ पधार कर बालक को अपनी गोद मे ले आनंदित होती हैं।

श्री वल्लभाचार्यजी का विद्या अध्ययन काशी में हुआ और आठ वर्ष की अल्प आयु में ही आपने वेद, उपनिषद्‌, पुराण, स्मृति, इतिहास और दर्शन आदि का अध्ययन पूर्ण कर लिया और १२ वर्ष की आयु में विद्वत सभाओं में शास्त्रार्थ कर समस्त विद्वानों के बीच स्वयं के मत को सर्वश्रेष्ठ प्रमाणित कर बालसरस्वती की उपाधि प्राप्त की, साथ ही साथ समस्त पृथ्वी की परिक्रमा के लिए अग्रसर हुए।

श्रीमहाप्रभूजी ने तीन पृथ्वी परिक्रमा की, पृथ्वी परिक्रमा करते हुए आपश्री ने विभिन्न क्षेत्रों एवं तीर्थस्थलों का भ्रमण किया। आपश्री ने मायावाद का खण्डन कर शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद की स्थापना कर समस्त मतों पर विजय प्राप्त की, जिससे प्रभावित हो विजय नगर के राजाश्री कृष्ण्देव ने समस्त विद्वानों के साथ आपश्री को ”अखण्ड भूमण्ड़लाचार्य चक्रचूडामणि जगद्‌गुरू श्रीमद्‌ वल्लभाचार्य महाप्रभुजी” की उपाधि प्रदान कर कनकाभिषेक किया।

इस प्रकार अनेक कीर्तिमान प्राप्त कर आप ब्रज (मथुरा) पधारे जहाँ प्रभु श्रीगोवर्धननाथजी की आज्ञानुसार आपने प्रभु श्रीकृष्ण की सेवा व भक्ति का एक सरल व सुन्दर पुष्टिभक्ति मार्ग प्रकट किया। महाप्रभु श्रीमद्‌ वल्लभाचार्यजी द्धारा संस्थापित पुष्टि मार्ग भगवद्‌ प्राप्ति का एक सरल, सहज, सर्वोत्तम प्रेम रसात्मक दिव्य मार्ग है।

श्रीमहाप्रभुजी के दो पुत्र हुए – प्रथम श्री गोपीनाथजी एवं द्वितीय श्री विट्‌ठलनाथजी (श्री गुसांई जी)।